मशहूर कृषि वैज्ञानिक, जिनकी शोध की बदौलत भरने लगा देश का अन्न भंडार

पिछली सदी में चालीस का दशक बंगाल के लोगों के लिए काल बनकर आया, महज दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाने के चलते लाखों लोगों ने तड़प-तड़पकर जान दे दी। अकाल की खबरों ने बंगाल से हजारों किलोमीटर दूर स्थित 18 साल के एक तरूण को दहला दिया। उसने ठान लिया कि भविष्य में कोई भूख से ना मरे, इसके लिए वह काम करेगा। भविष्य में वह पादप वैज्ञानिक बना। उसके प्रयासों और वैज्ञानिक शोध की वजह से देश के अन्न भंडार भरे रहने लगे। कभी महज गेहूं के लिए पश्चिमी देशों के नखरे झेलने वाला अपना देश अब इतना गेहूं और चावल का उत्पादन करने लगा है कि वह दुनिया को खिला सकता है। बंगाल के अकाल के वक्त 18 साल का तरूण भविष्य में एमएस स्वामीनाथन के नाम से जाना गया। अपने दोस्तों के बीच एमएस नाम से विख्यात स्वामीनाथन का गुरुवार 28 सितंबर को चेन्नई में निधन हो गया।

हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामीनाथन का जन्म 7 अगस्त 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम में सर्जन पिता एम के सांबशिवन तथा आध्यात्मिक माँ पार्वती थंगम्मल की संतान के रूप में हुआ था। भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से उन्हें साल 1989 में विभूषित किया गया। इसके पहले उन्हें 1971 में पद्म भूषण तथा 1966 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका था। दिलचस्प है, कि भारत समेत दुनिया के लगभग 84 से अधिक संस्थानों ने एम एस स्वामीनाथन को डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की थी। लगभग 40 से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिले, जबकि उन्हें लगभग 34 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमें सामुदायिक नेतृत्त्व के लिए मिला रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी शामिल है।

साल 1949 में उन्होंने नीदरलैंड के वेगेनिंगन में स्थित कृषि विश्वविद्यालय और उसके बाद में इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में आलू में साइटोजेनेटिक अध्ययन के साथ अपना युगांतरकारी शोध-करियर शुरू किया। मालूम हो, कि साइटोजेनेटिक्स आनुवांशिकी की एक शाखा है , जिसका संबंध इस बात से है कि गुणसूत्र कोशिका- व्यवहार से कैसे संबंधित हैं। वेगेनिंगन में उन्होंने वर्ष 1952 में जेनेटिक्स में पीएचडी प्राप्त की। जेनेटिक्स अथवा आनुवांशिकी जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता या हेरेडिटी तथा जीवों की विभिन्नताओं अथवा विविधताओं का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में अपना पोस्ट-डॉक्टरेट शोध किया।

कुल छह से सात वर्षों की अवधि में, उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की और शोध-पत्रिकाओं में अपने महत्वपूर्ण मूल शोध-पत्र प्रकाशित किए। इनमें से एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र वनस्पति विज्ञान से संबंधित अमेरिकी जर्नल ‘अमेरिकन पोटैटो जर्नल’ में उनका जीन्स में प्रजातीकरण के तंत्र को स्पष्ट करना प्रमुख है। इसके माध्यम से उन्होंने खेती में किए गए अनुप्रयोग टेट्राप्लोइड आलू के जीनोमिक संबंध को विस्तार से समझाया है।

दिलचस्प है, कि अमेरिका के विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में युवा शोध वैज्ञानिक के नाते उन्होंने पहली बार आलू का संकर बीज विकसित कर सबको चौंका दिया था। बाद में, स्वामीनाथन  की इस संकर आलू प्रजाति का उपयोग करके 'अलास्का फ्रॉस्टलेस' नामक ठंड-प्रतिरोधी आलू की किस्म विकसित की गयी। इसके बाद उन्हें विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में ही शोध-सह-शिक्षण पद की एक आकर्षक पेशकश की थी, लेकिन स्वामीनाथन ने अपनी मातृभूमि-भारत लौटने का फैसला किया। भारत में तब उस दौरान उनके पास कोई नौकरी नहीं थी।

बाद में, आलू के साइटोजेनेटिक्स और प्रजनन में उनकी प्रतिभा और अत्यधिक उल्लेखनीय योगदान से प्रभावित होकर, स्वामीनाथन को कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान अर्थात् सीआरआरआई में नियुक्त किया गया। यहाँ उनकी भूमिका भारत में चावल उगाने वाले इलाकों के लिए उत्तरदायी उपयुक्त-चावल की उर्वरक-किस्मों को विकसित करने के लिए थी। यहाँ चले संकरण-कार्यक्रम के परिणाम स्वरूप इंडिका और जैपोनिका के साथ ही भारत में हरित क्रांति आंदोलन का प्रारंभ शुरू हो गया।

इसी काम के परिणाम स्वरूप तमिलनाडु में एडीटी-27 तथा आरएएसआई जैसी किस्मों की खेती की गई। सीआरआरआई में छह महीने रहने के बाद, स्वामीनाथन को संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चुना गया और 1954 ईस्वी में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के तत्कालीन वनस्पति विज्ञान प्रभाग में सहायक साइटोजेनेटिकिस्ट के रूप में शामिल हुए। लगभग एक दशक बाद, जब स्वामीनाथन वनस्पति विज्ञान प्रभाग के प्रमुख बने, तो उन्होंने उचित रूप से इसका नाम ‘जेनेटिक्स डिवीजन’ के रूप में बदल दिया। यहाँ के जेनेटिक्स डिवीजन में उनकी प्रयोगशालाओं से उभरने वाले मौलिक और पथ-प्रदर्शक बुनियादी शोधों ने काफी हद तक अभिनव ज्ञान के साथ साक्षात्कार किया। इसके अलावा पहले की अवधारणाओं को भी परिष्कृत किया।

स्वामीनाथन की शोध-यात्रा जारी रही और फिर साल 1968 में स्वामीनाथन-बोरलॉग साझेदारी के पश्चात् भारत की हरित क्रांति का जन्म हुआ। पी सी केशवन और आर डी अय्यर ने संयुक्त रूप से अपने एक शोध-पत्र में लिखा है, कि "इसमें कोई संदेह नहीं है, कि हरित क्रान्ति के साथ गेहूं की पैदावार में भारी उछाल ने भारत की छवि को 'भीख मांगने के कटोरे' से 'रोटी की टोकरी' में बदल दिया।"

स्वामीनाथन ने 1950-60 के दशक  के दौरान आईएआरआई के स्नातकोत्तर स्कूल में साइटोजेनेटिक्स-1 और विकिरण आनुवंशिकी पढ़ाया। प्रत्येक छात्र उनके व्याख्यान सुनने के लिए बहुत रुचि और उत्साह के साथ तत्पर रहता था। दिलचस्प है, कि दिल्ली में बारिश, गर्मी या कड़ाके की ठंड हो, वह अपनी साइकिल पर सवार होकर बॉटनी डिवीजन के क्लास रूम तक जाते थे।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को स्वामीनाथन की किताब ‘हरित से सदाबहार क्रांति तक' की एक प्रति मिली थी। राष्ट्रपति ओबामा ने पुस्तक पढ़ने के बाद 8 नवंबर 2010 को भारतीय संसद में अपने संबोधन में 'सदाबहार 'क्रांति' की आवश्यकता का उल्लेख किया। उन्होंने कहा, "एक साथ, हम कृषि को मजबूत कर सकते हैं। भारतीय और अमेरिकी शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के बीच सहयोग ने हरित क्रांति को जन्म दिया।” इसमें एम एस स्वामीनाथन अग्रणी हैं।


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